नर्मदा परिक्रमा की अनकही कथा
मां नर्मदा परिक्रमा की यात्रा की आज ७वी संध्या है। १८. १०.१६. और १९. १०.१६. के बीच की रात।
स्थान :विमलेश्वर, ज़िला भरूच , प्रदेश गुजरात। विमलेश्वर वह स्थान है जहाँ से औपचारिक रूप से मां नर्मदा अरब सागर में समां जाती है।
३०किमि चौड़ा समुद्र का पाट तीर्थ यात्रियों को स्टीमर पर चढ़ कर पार करना होता है -दूसरे किनारे पर मीठी तलाई (भरूच)पहुंचने के लिए इस यात्रा में मेरी पत्नी मंजरी मिश्र , पूर्व असिस्टेंट एडिटर टाइम्स ऑफ इंडिया मेरे साथ हैं. मेरे भरोसे और निमंत्रण पर दस अन्य भी सहयात्री हैं जिनमे प्रमुख हैं विजय प्रताप साही , पूर्व जनरल मेनेजर टाइम्स ऑफ इंडिया व उनकी पत्नी रोमा , पूर्व जनरल मेनेजर गेल प्रवीण भटनागर ( पूर्व आइआइटियन ,मुम्बई) और उनकी आई ए एस पत्नी अलका टंडन भटनागर ,यूरो सर्जन डॉक्टर जगदीश गौर तथा अधिवक्ता समीर बैनेर्जी।
हम लोग अंकलेश्वर होते हुए रात आठ बजे कटपोर पहुंचे थे. यहां हमारी भेंट नाविक गुमान से हुई जिनसे बताया कि तीन सौ रूपये प्रति सवारी के हिसाब से तीन हज़ार छै सौ रुपये का भुगतान कर हम बारह लोग विमलेश्वर से पार जा सकेंगे। यह राशि दे उसे टिकिट लाने विमलेश्वर भेज दिया गया ।
करीब ग्यारह बजे रात मेरे मोबाइल पर ” ठेकेदार के आदमी” का फ़ोन आया. ” सवारियां कम हैं अतः हमे पचास की क्षमता वाली पूरी नाव किराये पर लेनी होगी जिसका किराया पंद्रह हज़ार होगा ैंउसका अंदाज़ और लहज़ा निःसंदेह एक प्रोफेशनल ब्लैकमेलर की तरह का ही था। मैंने फ़ोन काट दिया।
परिस्थितियां ये थीं कि कटपोर या विमलेश्वर में रहने लायक कोई स्थान नहीं था। साथ में महिलायें थी और ऐसा कोई बाथरूम भी नहीं था जिसका उपयोग किया जा सके।हमें यह भी समझ में आ गया कि अतिरिक्त एक या दो दिन समुद्र के किनारे रहना असंभवप्राय था। स्टीमर से चौबीस घंटे में सिर्फ तब समुद्र पार जाया जा सकता था ,जब उसमे ज्वार हो और ज्वार की अनुकूलता भी मात्र घंटे- दो घंटे के लिए ही संभव थी। सारे प्रयासों के बावजूद अंकलेश्वर(कटपोर से पचीस किलोमीटर पहले) हमें यह पता नहीं चल सका था कि ज्वार कब आएगा। अंकलेश्वर में ज्वार सात बजे सुबह आने की बात कही गयी थी जबकि कटपोर में ज्वार के सुबह चार बजे आने की बात पुष्ट हुई।
हममित्रों ने यह तय किया की हम विमलेश्वर पंहुच कर परिस्थितियों को अनुकूल करें। रात बारह बजे जब हम लोग वहां पर पहुंचे तब तक ठेकेदार के आदमी को मेरे पूर्व पुलिस अधिकारी होने की बात पता चल गयी थी और वो हमें पर ले जाने को सहमत हो गया। किराए के ३६०० रुपये लेने के बाद मेरे टिकेट मांगने पर वह हतप्रभ हो गया.
हमें जवाब मिला ” हम आपको पार तो करा देंगे पर टिकिट न दे पाएंगे क्योंकि टिकिट तो यहाँ दिया ही नहीं जाता “
मेरे हाथ में लिया हुआ हम सबका नाम आदि का विवरण उसके लिए व्यर्थ था. “इसकी कोई ज़रुरत नही है यहाँ पर” ,उसका टके सा जवाब मेरे लिए चिंता का विषय था। यह भी समझ में आ गया कि तीर्थयात्रियों के स्टीमर द्वारा ,विमलेश्वर से मीठीतलाई जाने का कोई भी विवरण कहीं पर दर्ज़ नहीं होना था। मुझे तब यह भी ख़याल आया की किसी दुर्घटना में हम सबके न रहने पर हमारा कोई मृत्यु प्रमाण पत्र न तो अरब सागर निर्गत करेगा न ही स्थानीय ठेकेदार जो स्थानीय प्रशासन को पंद्रह लाख की लाइसेंस फीस के भुगतान के बाद इस निर्जन पड़ाव का छत्रप बना बैठा था।
विमलेश्वर में इस वीरान जगह के आस- पास सरकारी तंत्र की ओर से न ही कोई सिपाही उपलब्ध था न चौकीदार,जिससे कुछ कहा जा सके। स्पष्ट है की लाइसेंस की रकम पाने के बाद स्थानीय प्रशासन के दायित्वों की इतिश्री हो गयी थी।
पास ही एक शेड बना था एक पक्के चबूतरे पर। दिन भर की यात्रा की थकान ऐसी थी कि उस पर लेटते ही नींद आ गई। वैसे भी श्रीमतीजी की आग्नेय दृष्टि जो लगातार ये उलाहना दे रही थी कि कहाँ फंसाया है तुमने , से बचने का सबसे उत्तम उपाय था आंखें बंद कर लेना।
ये बताया गया था कि स्टीमर में कोई शौचालय नहीं होगा इसलिए यात्रा से ५- ६ घंटे पहले से पानी भी पीना बंद करना उचित था। बाद में श्रीमतीजी ने बताया वे जब कथित लेडीज बाथरूम , जिसके इर्द- गिर्द पुरुष लेटे हुए थे, में जा कर दरवाज़ा बंद करने को हुईं तब उन्हें भान हुआ कि दरवाज़ा तो वहां था ही नहीं और जिसे वो दरवाज़ा समझ कर खींच रहीं थीं, वो दरअसल प्लास्टिक की चौखट थी जो श्रीमती के खींचने से उखड़ने को हो आयी थी। अलका के साथ मुझे मन ही मन उलाहना देते हुए वे वापस लौट आयीं।
करीब दो बजे हड़बड़ा कर उठा तब चारों ओर अफ़रा -तफ़री का माहौल था। शोर मच रहा था ” समुद्र आ गया- समुद्र आ गया “.हम बारह लोग एक लड़केनुमा गाइड के पीछे समुद्र की ओर चल दिए।
थोड़ी ही देर बाद अँधेरे में पैरों के नीचे की मिटटी के नम होने का आभास होने लगा और तब पता चला कि हम समुद्री कीचड़ में हो कर आगे जा रहे हैं। धीरे- धीरे, पैरों के टखने कीचड मैं धंसने लगे। सौभाग्यवश मैं नंगे पाँव था। सहयात्रियों की चप्पलें कीचड़ में धँस कर इतनी बोझिल हो गई थीं कि उन्हें पहन कर चलना अब संभव नहीं था।बड़ा विलक्षण दृश्य था , सुबह के पौने तीन बजे ,एक कतार में चन्द्रमा के प्रकाश के सहारे हाथों में अपनी कीचड़ से सनी चप्पलों का बोझ ढोते और गिरते- फिसलते ये बारह सहयात्री।
कोई चालीस मिनिट( २ किलोमीटर ) और चलने के बाद समुद्री किनारे पर टेढ़ी टिकी एक जर्जर और मध्यम आकार की लकड़ी की नाव ( जिसे छोटे मछुआरे मछली पकड़ने के लिए उपयोग में लाते हैं )देख कर सहसा विश्वास ही न हुआ कि इसके सहारे ३० किलोमीटर का अरब सागर पर करना होगा।
मुझे याद आया कुछ समय पूर्व टाइम मैगज़ीन का वह लेख जिसमें सीरिया से शरणार्थियों के यूरोप जाने का विवरण छपा था। भू मध्य सागर में इसी वर्ष २५०० से अधिक शरणार्थी अपनी जान गँवा चुके ४० हॉर्स पावर की मोटर बोट पर समुद्र पार जाने का जोखिम उठा के। हम सदियों से चली आई इस तीर्थयात्रा में अपने देश के बीचों बीच वही खतरा उठाने जा रहे थे। सही कहा जाए तो हम सब बाध्य थे यह खतरा उठाने को।
धीरे- धीरे समुद्र का जल स्तर चढ़ने लगा। और तब तीन नाविकों ने अपनी नाँव को हिला कर समुद्री जल में ठेलने का प्रयास आरम्भ किया। असफल होने पर उन्होंने रौब से तीर्थयात्रियों को ललकारा और सात आठ नौजवान तीर्थयात्रियों के सहयोग से नाव को बढ़ते हुए समुद्र में धकेल दिया।
अब सवाल था उस पर चढ़ने का। नाव से लटकते एक टायर पर पैर फँसा कर मल्लाह तो नाँव में चढ़ गए और बाकी ३० से ७५ वर्ष के स्त्री -पुरुष यात्रियों को खींच कर,धकिया कर अथवा उठा कर नाव के अंदर उलट दिया गया – बोरियों की तरह।
नाव के अंदर सीट तो थी ही नहीं। लकड़ी के फट्टे जिन पर हमें बैठना था वे पूरी तरह कीचड़ से लबरेज़ थे। अपने पैर के कीचड़ को सहेजते हम सब उन फट्टों और कीचड़ पर टिक गए। उस गंदगी और गीलेपन का हमारे कपड़ो और फिर शरीर तक जाना सबके लिए एकदम नया अनुभव था।
अधिक से अधिक २० की संख्या के लिए बनी इस नाव में हम ३८ लोग , अधिकतर अपनी गठरी संदूकची समेत , ठसाठस भरे हुए थे। कुछ लोग नाव के फर्श पर भी बैठ गए थे इसलिए पैर फैलाने की गुंजाईश भी नहीं थी गाडरवारा और नरसिंहपुर से आये ग्रामीणों का नर्मदे हर का नारा ४० हार्सपावर के इंजन की गड़गड़ाहट में डूब गया-डीज़ल का वो इंजन जो किसी स्थानीय जुगाड़ से इस काठ की नाँव में फिट कर दिया गया था। मुझे आश्चर्य हुआ की धन उगाही के लिए इस नाँव की क्षमता ५० लोगों को पार ले जाने की बतायी जा रही थी।
प्रातः ४ बज कर ९ मिनिट पर हमारी यात्रा का आरम्भ हुआ। इंजन के भीषण शोर और बेहद थकन के कारण वहां किसी से कुछ भी कहना न तो संभव था न ही उसका कोई लाभ था। कुछ ही देर मैं हम समुद्र में प्रवेश कर गए।समुद्र का विकराल स्वरुप हम मनुष्यों को सदैव अपनी क्षुद्रता का बोध कराता है – नगण्यता का भी।
अमरकंटक मध्य प्रदेश से निकल तक भरूच गुजरात में समां जाने वाली माँ नर्मदा के प्रति मेरा आकर्षण कोई ३५ -३६ साल पुराना है। पता नहीं कितने लोग अब भी पैदल और वाहन से लगभग ३२ ०० किलोमीटर्स की यह परिक्रमा करते हैं जो म.प्र. के १८ , महाराष्ट्र के १ और गुजरात के दो जनपदों से हो कर गुजरती है।
अरब सागर में इस तिकड़मी मोटर बोट पर हिचकोले लेते मुझे ध्यान में आया की बिना किसी टिकट या लाइफ जैकेट के और बिना किसी अभिलेख के,स्मगलरों की तरह की जा रही यह यात्रा अपने देश और समाज की दुर्व्यवस्थाओं का प्रतिबिम्ब है। जहाँ सब कुछ जैसे भगवान् भरोसे ही चल रहा है। अगर वास्तविकता का तनिक भी अनुमान होता तो मैं कम से कम अपने मित्रों को यह जोखिम उठाने को प्रेरित न करता जो मेरे प्रति सदाशयता के कारण चुपचाप चाँद- तारों को देख रहे थे या मुस्कुराते हुए सहयात्रियों के भजन के साथ ताली बज रहे थे ।
सुबह होने को आ गई है। सूरज की किरणों के साथ ग्रामीणजन समुद्र से अपने अपने पात्रों में जल भरने और नारियल की भेंट चढ़ाने को आतुर हैं। एक होड़ सी लग गई है सहसा। ओवरलोडेड नाव डगमगाने लगती है. मल्लाह घबरा कर सबको एक जगह बिना हिले बैठने का फरमान देते हैं. पर एक तरफ देवता को खुश करने मौका है जो जीवन मे फिर न मिलेगा और दूसरी ओर नाववाले का बेवजह का डर। निर्णय बहुत ही आसान है.”जे लो दद्दा हमाओ नारियल भी डाल दियो “.. और आवाज़ें , लगातार खड़े होते और समुन्दर को छूने को एक तरफ झुकते हुए लोग,नाव का एक ओर तिरछा होना,वो दंतविहीन उन्मुक्त हंसी और ख़ुशी में बजती तालियां”मैया ने फिर बचा लओ”…
श्रद्धा भय नहीं जानती। मल्लाहों की हैसियत अब सहमे हुए दर्शकों की सी ही है।
पर दस मिनिट बाद उनकी भी बारी आती है बहते अरब सागर में हाथ धोने की। सो वे पण्डे बन गए है ” केवट दान”मांगते । टेढ़े -मेढ़े श्लोक बोल कर कर्मकांड करा रहे हैं उगाही के लिए। सरल सहयात्री असीम श्रद्धा से उन्हें भेंट चढ़ाते हैं। नाव फिर डगमगाती लगी है , कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से। अब की बार मैं ही नारा लगाता हूँ ‘ नर्मदे हर !!’ – अपने आत्मविश्वास के लिए !
मीठी तलाई(भरूच) का किनारा अब दिखने लगा है। धीरे- धीरे नाव शोर मचाती ,डगडग करती किनारे आ लगाती है। समय प्रातः ७.२०, दिनांक १९.१०. १६।
घुटने- घुटने पानी में हम सबको एक- एक करके उतारा जाता है। नाव में जैसे चढ़ने की सुविधा नहीं थी वैसे ही उतरने की भी नहीं। थके पाँव जब समुद्र से निकल कर धीमे- धीमे पैरों का कीचड़ धो कर और समुद्री कीचड़ से सराबोर कुर्ते- पायजामे को देखता हूँ तो अपने और अपने सहयात्रियों पर कुछ दया सी आती है। खास तौर पर उन ग्रामीण अंचल के नर्मदा भक्तों पर , जो अभी अपनी गीली गठरियां और ओढ़ने – सर पर ढोते हुए माई के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने में मगन हैं।
कहने को यह आज़ादी का ७० वाँ साल , धर्मप्राण देश,माँ नर्मदा के तटीय क्षेत्र के निवासियों का विलक्षण भक्तिभाव ,पैदल और मोटर से पता नहीं कितने धर्मभीरु लोग इस यात्रा मैं रत और विमलेश्वर से मीठीतलाई तक की इस समुद्री यात्रा की ऐसी अभूतपूर्व दुर्व्यवस्था !!
माँ नर्मदा सुव्यवस्था की सद्बुद्धि दें सर्व सम्बंधित को इस आस्था के साथ
नर्मदे हर !!
शैलजा कान्त मिश्र
No words to say at all.
It was extremely unsayable
Realy you got a new experience and while reading your post , it seemed to me that I was there on the meeting place of see and ma Narmada.
All in all it was joyful but horable.
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बहुत ख़ूबसूरत 👌👌दृश्य आँखों से देखा ऐसा लगा।
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Thanks, Seema.
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